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Wednesday, 27 January 2016

।।अनिष्टकारी चंद्रमा।।

।।अनिष्टकारी चंद्रमा।। यदि जन्म समय में मेष राशि में चन्द्रमा 23अंश पर हो और अष्टम स्थान मे पाप युत और पाप दृष्ट हो तो 23 वर्ष के अंदर ही जातक की मृत्यु होती है।इसी प्रकार वृष के 21 अंश पर, मिथुन के 22अंश पर ,कर्क के 22अंश पर ,सिह के21 अंश पर,कन्या के 1 अंश पर ,तुला के 4 अंश पर,वृश्चिक के 21 अंश पर ,धनु के 18 अंश पर ,मकर कः 20अंश पर ,कुंभ के 20अंश पर और मीन के 10 अंश पर यदि जन्म समय का चंद्रमा हो तो अरिष्टकारी होता है और बालक की मृत्यु उतने वर्षों के अंदर संभव है।किन्तु चंद्रमा का अष्टमगत होना केवल मेष राशि के चंद्रमा के लिये ही कहा गया है ,शेष राशियों में चंद्रमा का अष्टम मे रहना आवश्यक नही है। परन्तु इसमें मतांतर भी है जो निम्न चार्ट से स्पष्ट है।


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Monday, 25 January 2016

।।तारा विचार।।


।।तारा विचार।।

जन्म नक्षत्र से क्रमशः गिनने पर
1-जन्म 2-सम्पत् 3-विपत 4-क्षेम
5-प्रत्यरि 6-साधक 7-वध 8'मित्र,
9-अतिमित्र ये 9 तारायें होती हैं।
अर्थात् ये तारा संज्ञायें हैं।इनका फल अपने नाम के अर्थ जैसे ही होता है कृष्णपक्ष में ताराबल भी देखना चाहिए।सामान्य नियम से चंद्र बल सर्वत्र देखना चाहिए।
3,5,7 ताराएं अशुभ व शेष शुभ होती हैं।यात्रा, विवाह,चिकित्सा में सदा अशुभ तारा का त्याग करना चाहिए।
।।अशुभ तारा निवारण।।
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आवश्यकता हो और तारा प्रतिकूल हो तो विपत् तारा में गुड़ (खांड़ या बूरा चीनी भी)
,जन्मतारा में साग सब्जी ,प्रत्यरि तारा में नमक ,वध तारा में तिल व दक्षिणा (तिलपात्र) का दान करना चाहिए।
लेकिन तारादोष के समय चंद्रमा यदि उच्चगत , स्वक्षेत्री, शुभवर्गों में हो पूर्ण या अधिक प्रकाशित हो तो तारा दोष नष्ट हो जाता है।
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।।नक्षत्रों की तारा संख्या।।
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वृहत्संहिता के अनुसार।
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अश्वनी-3, भरणी -3,कृतिका-6,रोहिणी-5
मृगशिरा-3,आर्द्रा-1,पुनर्वसु-4,पुष्य-3,
आश्लेषा-5,मघा-5,पू.फा.-2,उ.फा.-2
हस्त-5,चित्रा-1,स्वाती-1।विशाखा-4, अनुराधा-4,ज्येष्ठा-3,मूल-11,पू.षा.-2
उ.षा-2,अभिजित-3,श्रवण-3,धनिष्ठा-4
शतभिषा-100,पू.भा.-2,उ.भा.-2
रेवती-32
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Sunday, 24 January 2016

।।नक्षत्रों का अद्भुत रहस्य।।


।।नक्षत्रों का अद्भुत रहस्य।।

1 जन्म नक्षत्र से दूसरे,चौथे,छठे,आठवें नक्षत्र के स्वामी से केंद्र/त्रिकोण में स्थित ग्रह अपनी महादशा /अन्तर्दशा में शुभ फल देते हैं।

2जन्म नक्षत्र से दूसरे ,चौथे,छठे,आठवें नक्षत्र स्वामी से छठे,आठवें या बारहवें में स्थित ग्रह अपनी महादशा/अन्तर्दशा में अशुभ फल देते हैं ।

3जन्म नक्षत्र से तीसरे ,पाँचवें,सातवें नक्षत्र के स्वामी से छठे,आठवें या बारहवें स्थित ग्रह अपनी महादशा/अन्तर्दशा में बहुत अच्छा फल देते हैं।

4 जन्म नक्षत्र से पहले,नवें ,दशवें अठारहवें,उन्नीसवें तथा सत्ताइसवें नक्षत्र के स्वामी से केंद्र /त्रिकोण में स्थित ग्रह शुभ फल देते हैं।

5 जन्म नक्षत्र से पहले,नवें,दशवेंअठारहवें उन्नीसवें तथा सत्ताइसवें नक्षत्र के स्वामी से छठे,आठवें व बारहवें मे स्थित ग्रह अशुभ फल देते हैं।

6 जन्म नक्षत्र से पहले,दूसरे चौथे छठे,आठवें तथा नवें नक्षत्र के स्वामी से दूसरे ,तीसरे व ग्यारहवें स्थित ग्रह यदि शुभ ग्रहों से संबद्ध हों तो शुभ फल ,यदि अकेला हो तो मध्यम प्रकृति का फल देते हैं।

7 जन्म नक्षत्र से तीसरे ,पाँचवें ,सातवें नक्षत्र के स्वामी से दूसरे,तीसरे व ग्यारहवें स्थित ग्रह यदि अशुभ ग्रहों से युत हो तो अशुभ फल देते हैं ।यदि अकेले हो तो मध्यम अशुभ होते हैं।
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Thursday, 21 January 2016

।। स्थिर लग्नों में एकल संतान योग।।



।। स्थिर लग्नों में एकल संतान योग।।
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● चंद्रलग्नाधिपे मन्दे स्वोच्चे गुरुनिरीक्षिते। स्थिरलग्ने प्रजातश्च एकाकी भातृहीनवान। ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
स्थिर लग्नों (2,5,8,11) में यदि चंद्र मकर या कुंभ में हो ,अर्थात शनि चंद्र राशीश होकर अपनी उच्च राशि(तुला) में स्थित हो और गुरु द्वारा दृष्ट हो तो जातक अपने माता पिता की एकलौती संतान होती है। With saturn being the moon sign lord, if placed in its exaltation sign (libra) in aspect to Jupiter, one born in an immovable ascendant will be the lonely issue of the family, bereft of any coborn. ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

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।।कुंडली में जन्तुओं से खतरा।।


।।कुंडली में जन्तुओं से खतरा।।
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1 यदि राहु लग्न में हो और लग्नेशगत राशि बली हो तो सर्प से भय होता है।
2 यदि लग्नेश और षष्ठेश राहु अथवा केतु के साथ हो तो जातक को सर्प, चोर एवं अन्य हानिकारक जीवों से भय होता है
3यदि राहु लग्न में और लग्नेश तृतीयेश के साथ हो तो सर्प से भय होता है।
4यदि सूर्य, शनि, राहु सप्तमस्थ हों तो ऐसे जातक को सर्प अथवा जहर से खतरा होता है।
5 यदि लग्न एवं चंद्र दोनो से सप्तम शनि और उसके साथ सूर्य तथा राहु हो तो ऐसे जातक को शय्या पर सोये हुए सर्प काटता है।
6 यदि शनि पाप ग्रह के साथ द्वितीय स्थान में बैठा हो और उस पर पाप ग्रह की दृष्टि भी हो तो जातक को कुत्ते से भय होता है ।
7 यदि द्वितीयेश शनि के साथ हो अथवा उस पर शनि की दृष्टि पड़ती हो तो भी कुत्ते से भय होता है।
8 यदि अष्टम स्थान से त्रिकोण में शुक्र शनि अथवा चन्द्रमा हो और उस स्थान मे बुध व मंगल भी हों तो जातक को कुत्ता काटने का भय होता है ।
9यदि गुरु लग्न में तृतीयेश के साथ हो तो जातक को चतुष्पाद जीवों से विशेष कर गौ वंश से भय होता है।
10 यदि धनु अथवा मीन राशि में बुध तथा मकर अथवा कुंभ राशि में मंगल हो तो ऐसे जातक की मृत्यु जंगल में हिंसक जन्तुओं द्वारा होती है।
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Wednesday, 20 January 2016

।।भूमि भवन कब प्राप्ति होगी।।


।।भूमि भवन कब प्राप्ति होगी।।
बहुत से लोगों को जिज्ञासा रहती है कि उनका भी अपना मकान हो रहने की अपनी छत हो जानिए आपको अपना मकान कब प्राप्त होगा।गोचर में ( तीनों चतुर्थेशों )लग्न से , चंद्र से व मंगल से चतुर्थ स्थान के स्वामियों को जोड़ने पर प्राप्त राशि व नवमांश पर जब मंगल गोचर करता है तब भूमि भवन का लाभ होता है ।
Gains of landed properties will be the result when Mars moves in the space indicated by adding the longitudes of the 4th lords from ascendant, moon and the mars.
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।।मूलत्रिकोण।।

।।मूलत्रिकोण।।
सूर्य तथा चंद्र को छोड़कर शेष प्रत्येक ग्रह दो दो राशियों के स्वामी होते हैं।ऐसे में ग्रह स्वामी एक राशि में सकारात्मक और दूसरी राशि में नकारात्मक(negative)होता है।सकारात्मक राशि ग्रह की मूलत्रिकोण राशि होती है
ग्रह - सकारात्मक राशि -नकरात्मक राशि
सूर्य- 5 - 5
चंद्र- 4 - 4
मंगल- 1 - 8
बुध- 6 - 3
गुरु- 9 - 12
शुक्र- 7 - 2
शनि- 11 - 10
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इन त्रिकोण राशियों का महत्व यह है कि जब किसी ग्रह की दशा भुक्ति आती है तो तो ग्रह उस दशा का मुख्य रूप से फल करता है , जिसमें से उसकी मूल त्रिकोण राशि पड़ती है।यही कारण है कि कर्क लग्न वालों के लिए गुरु की दशा साधारण फल देने वाली मानी गई है।यद्यपि गुरु की एक राशि मीन सर्वोत्तम त्रिकोण अर्थात नवम भाव में पड़ती है परंतु गुरु की सकारात्मक त्रिकोण राशि एक त्रिक (अनिष्ट) षष्ठ भाव में पड़ती है ।अतः गुरु का मुख्य फल छठे भाव से संबंधित रहेगा और व्यक्ति को परेशानी उठानी पड़ेगी ।ऐसे जातक को परिश्रम अधिक करना पड़ेगा लेकिन लाभ बहुत साधारण रहेगा।
नियम का स्पष्टीकरण- प्रकृति मनुष्य के जीवन के फलों का तारतम्य बनाये रखना चाहती है ।इसलिए वह अपना कार्य ग्रहों के दो राशियों के आधिपत्य द्वारा संपादित करती है ।ग्रहों द्वारा दो-दो राशियों के स्वामी होने का प्रयोजन यह है कि दोनो राशियां सदा एकदूसरे से घनिष्ठ संबंध रखती हैं, चाहे वे जन्मकुंडली के किसी भी भाव में हों-
मेष लग्न- मेष लग्न में मंगल प्रथम तथा अष्टम भावों का स्वामी बन जाता है ।मंगल पर पड़ने वाला किसी भी प्रकार का प्रभाव उसकी दोनो राशियों पर पड़ा माना जाएगा यदि यह प्रभाव शुभ हुआ , तो मेष राशि वृश्चिक राशि को लाभ पहुंचाएगी और वृश्चिक राशि मेष राशि को ।इसके विपरीत यदि प्रभाव अशुभ हुआ , तो मेष राशि से वृश्चिक, राशि को हानि उठानी पड़ेगी और वृश्चिक राशि से मेष राशि को ।इसी प्रकार में लग्न की कुंडली में वृष और तुला-दोनो राशियों का परस्पर घनिष्ठ संबंध है।यही हाल मिथुन व कन्या का , धनु और मीन का और मकर एवं कुंभ का है ।किसी ग्रह की दो राशियों का यह घनिष्ठ संबंध (अच्छा अथवा बुरा फल ) उन भावों द्वारा होता है जिनमें दोनो राशियां जन्मकुंडली मे स्थित होती हैं।

।।पीड़ित लग्नेश रोगी बनाता है।।

लग्नाधिपो जन्मनि पापदृष्टो
हीनो न केनापि ग्रहेणयुक्तः।
धातु स्वकीये हि ददाति रोगं
रविर्यथास्थौ चन्द्रश्चरक्ते।।
लग्नेश पाप दृष्ट या अन्य प्रकार निर्बल होकर शुभ ग्रहों की दृष्टि युति से वंचित हो, तो ऐसा जातक लग्नेश से संबंधित धातु रोग से कष्ट पाता है ।पीड़ित सूर्य अस्थि रोग तो पाप दृष्ट हीनबली चंद्रमा रक्त संबंधी रोग देगा इसी प्रकार अन्य ग्रह भी लग्नेश होकर पापी ग्रहों से पीड़ित होने पर निम्न रोग देते हैं।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• सूर्य- अस्थिरोग।
चंद्र- रक्तविकार
मंगल- मांसपेशी या अस्थि मज्जा रोग।
बुध-त्वचा रोग, स्मृति भ्रंश।
गुरु-कफ या यकृत(जिगर) के रोग।
शुक्रवार विकार या प्रजनन अंग के दोष।
शनि तथा राहु - केतु- स्नायुविक दुर्बलता , अपंगता।
।।अस्थिभंग का उदाहरण।।
प्रस्तुत कुंडली में लग्न में व्ययेश चंद्रमा है तो लग्नेश सूर्य षष्ठ ( रोग ) भाव में राहु से दृष्ट है।सूर्य अस्थि का कारक होकर षष्ठ भाव में होने से जातक ने हड्डी टूटने से कष्ट पाया ।लग्नेश dispositor अर्थात शनि पंचम भाव में होने से रोग संबंधी चिंता की पुष्टि करता है।राहु dispositor शुक्र का अष्टम भाव में उच्चस्थ होना तथा अष्टमेश का षष्ठेश से दृष्टि संबंध होना भी रोग और विपत्ति की पुष्टि करता है।

12th huse में ग्रहों की युति और रोग

कुछ विद्वान त्रिक स्थान (6'8'12) में द्वादश भाव को सर्वाधिक अनिष्टप्रद मानते हैं।
द्वादश भाव में -
1- सूर्य की शनि या राहु से युति अस्थि विकार या ।हड्डियों का रोग देती है।
2-चंद्र की शनि या राहु से द्वादश भाव में युति दृष्टि दोष , मतिभ्रम, मन की अस्थिरता या व्यग्रता तथा रक्त की कमी देता है।
3- मंगल की द्वादश भाव में राहु या शनि से युति दृष्टि मांशपेशियों की दुर्बलता देती है।
4- द्वादश भाव में बुध की शनि या राहु से युति दृष्टि से चर्मरोग या बुद्धि विकार होता है।
5- गुरु की द्वादश भाव में शनि या राहु से युति दृष्टि मज्जा विकार या मोटापा देता है।
6- शुक्र की द्वादश भाव में शनि या राहु से युति दृष्टि वीर्यदोष या यौन दोष देता है।
7- द्वादश भाव में स्थित शनि का राहु से दृष्टि युति संबंध स्नायुविक दुर्बलता तथा मन मे विषाद या क्षोभ देता है।

|| शरीर के किस अंग में रोग होगा ||

यदा लग्ने तु लग्नेशःपाप दृष्ट्या समन्वितः तदा कष्टं तु वक्तव्यम् अंगे लग्नांकदर्शिते।। यदि लग्न और लग्नेश पापग्रह की दृष्टि युति से पीड़ित हों ( लग्न कारक पर भी विचार करें) तो लग्न की राशि संबंधित अंग रोग से पीड़ित होता है ।विद्वानों ने राशियों को सम्मुख दर्शाये अंगों का प्रतिनिधित्व दिया है। 1- मेष= सिर, माथा । 2- वृष=चेहरा , आँख,नाक मुँह। 3-मिथुन=कान, श्वांसनली , वक्षस्थल,कंधे 4-कर्क=हृदय, फेफड़े, पेट का ऊपरी भाग। 5- सिंह=पेट, आमाशय। 6-कन्या=आंते(intestine) कमर। 7-तुला=प्रजनन प्रणाली। 8-वृश्चिक=गुदा, योनि, अण्डकोष। 9-धनु=जंघा, नितंब, सन्धि। 10-मकर=घुटने का जोड़, घुटने की मांशपेशियां। 11-कुंभ=टाँग,calves घुटने से टखने तक 12-मीन=पाँव, टखना , पंजा, पदतल।